रविवार, 8 मार्च 2009

प्यार की राह दिखा दुनियाको..........

Thursday, July 26, 2007

प्यार की राह दिखा दुनियाको...

ये लेख मैंने तब लिखा था,जब गुजरात मे हुए फसांदों से मेरा मन तड़प उठा था....


कयी महीनो से मैं और आपलोग भी, गुजरात मे घटी घटनायों का ब्योरा पढ़ रहे हैं । कोईभी तर्क संगत व्यक्ती जो घटा है या घट रहा है, उस से सहमत नही हो सकता। इस मे कोई दो राय नही। अपनी अपनी ओर से कई लोगों ने जागृती लानेकी की कोशिश की,लेख लिखे गए तथा t.v.आदि के ज़रिये जागरुकता लाने का प्रयास हुआ। हिंदुस्तान मे क़ौमी फ़साद कोई पहली बार नही हुआ।
भिवंडी,मालेगाओ जैसी जगहें भी इन मामलों मे नाज़ुक मानी जाती हैं। मेरे बचपन मे मैंने जमशेद्पूर के क़ौमी फसादों के बारेमे किसीसे आँखों देखा हाल सुना था। छ:छ:महीनों के बच्चोंको ,ऊपरी मंजिलों से , उनकी माँओं के सामने पटक दिया गया था,छोटे बच्चोंके सामने उनके माँ बाप को काट के जला दिया गया था।

इसी तरह स्थिती गुजरात मे हुई और हाल ही मे मेरी मुलाक़ात कुछ ऐसे लोगोंसे हुई जिन्होंने ये सबकुछ अपनी आँखोंसे देखा था,जो बच तो निकले, लेकिन इन सदमों के निशाँ ता उम्र नही भुला पाएँगे ! कैसा जुनून सवार हो जाता है इन्सानोपे जो हैवान भी कहलाने लायक नही रहते??क्यों होता है ऐसा??इनकी सद-असद विवेक बुद्धी कहॉ चली जाती है या होती ही नही??इनके मन मे कितना अँधियारा होता होगा!!क्या ऐसे लोगों को कभी भी पश्च्याताप होता होगा??क्या भविष्य मे अपनी मृत्यु शय्या पे पडे ये शाँती से मर पाएँगे?? सुना है मन के हज़ारो नयन होते हैं, ये लोग देश की न्याय व्यवस्था से बच भी निकालें तो क्या अपने मन से बच पायेंगे ???आख़िर धर्म क्या है??इसकी परिभाषा क्या है?ऐसे सैकड़ों,हज़ारों सवाल मेरे मन मे डूबते उभरते रहते हैं ,जो इसकी तह तक जाने के लिए मुझे मजबूर करते हैं । ऐसेही कुछ ख़याल आपसे बाँटना चाहती हूँ।

बचपन मे अपनी सहेलियोंके घर जाया करती थी। उनके घर के बडे बुज़ुर्गोंको देखा करती थी। जब कभी उनके बुज़ुर्ग उन्हें आशीष देते थे तो मैंने कभी किसीके मुँह से ये नही सुना कि तुम इंसान बनो ,इस देश के अच्छे नागरिक बनो !!
मैंने लोगों को कयी सारे तीज त्यौहार मनाते देखा,ख़ूब ज़ोर शोर से देखा,लेकिन किसी को निजी तौर पे अपने घर मे स्वतंत्रता दिवस या फिर गणतंत्र दिवस मनाते नही देखा। ये दो दिन ऐसे बन सकते थे जो हर हिन्दुस्तानी एकसाथ मना सकता था,मिठाई बाँट सकता था,एक दुसरे को बधाई दे सकता था!!मैंने किसी माँ को अपने बच्चों से कहते नही सुना,"इस देश को रखना मेरे बच्चों संभल के..!"एक अच्छा नागरिक बनना क्या होता है,इसकी शिक्षा कितने घरोंसे बच्चों को दी जाती है??इस मंदिर मे जाओ,उस दर्गा पे जाओ। यहाँ मन माँगी मुराद पूरी होगी। बेटा इंजीनियर या डाक्टर बन जाये इसलिये मन्नतें माँगती माँओं को देखा,बेटी का विवाह अच्छे घर मे हो जाये ऎसी दुआएँ करते देखा(जिसमे कोई बुराई नही)लेकिन संतान विशाल र्हिदयी इन्सान बन जाये ऎसी दुआ कितने माता पिता करते है???

श्रीमद् भगवत गीतामे श्रीकृष्ण अर्जुनसे कहते हैं ,"हे भारत!(अर्जुन) जब,जब धर्म की ग्लानी होती है,तथा अधर्म का अभ्युत्थान होता है,तब,तब,धर्म की रक्षा करने के लिए तथा अधर्म का विनाश करने के लिए मैं जन्म लेता हूँ"। भगवन ने "हिंदु धर्मस्य ग्लानि "या "मुस्लिम धर्मस्य ग्लानी " ऐसा तो कहीं नही कहा!!इसी का मतलब है कि प्राचीन भारतीय भाषाओंमे "धर्म"शब्द का प्रयोग स्वभाव धर्म या निसर्ग के नियमोंको लेकर किया गया था, ना कि किसी जाती-प्रजाती को, जो मानव निर्मित है। इसका विवरण ऐसे कर सकते हैं , जैसे कि,अग्नी का "स्वभाव "धर्म है जलना और जलाना। निसर्ग के नियम सभी के लिए एक समान होते हैं। निसर्ग कहीं कोई भेद भाव नहीं करता।कडी धूप मे निकला व्यक्ती, चाहे वो कोयीभी हो,सूरज की तपिश से बच से पायेगा?क्या हिंदू को मलेरिया हो जाये तो उसकी दवाई कुछ और होगी और किसी मुस्लिम हो जाये तो उसकी कुछ और??
"मज़हब नही सिखाता आपस मे बैर रखना,हिंदी हैं हम,वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा",इसकी शिक्षा घर घर मे क्यों नही दी जाती ?ना हमारे घरोंमे दी जाती है ना हमारी पाठशालाओं में। बडे अफ़सोस के साथ ये कहना पडेगा तथा मान ना पडेगा।

जब मेरे बच्चे स्कूल तथा कालेज जाते थे और उनके सह्पाठियोंकी माँओं से मेरा मिलना होता था, तो चर्चा का विषय केवल बच्चोंकी पढ़ाई ,ट्यूशन और विविध परीक्षायों मिले मे अंकों को लेकर होता था। ज़िंदा रहने के लिए रोजी रोटी कमाना ज़रूरी है, इस बात को लेकर किसे इनकार है??लेकिन बच्चों के दिलों दिमाग़ मे भाई चारा और मानवता भर देना उतनाही ज़रूरी है।
मैंने कयी हिन्दुस्तानियों के मुहँ से सुना,"काश! अँगरेज़ हमे छोड़ के नही गए होते!!"मतलब अव्वल तो हम अपने घर मे चोरों को घुसने दें,फिर उन्हें अपना घर लूटने दें,और कहें कि वे घर मे ही घुसे रहते तो कितना अच्छा होता!!अपने आप को इस क़दर हतबल कर लें कि, पराधीनता बेहतर लगे!!

चंद लोगोंके भड़काने से गर हम भड़क उठते हैं , एक दूसरे की जान लेनेपे अमादा हो जाते हैं,तो दोष हमारा भी है। कभी तो अपने अन्दर झाँके!!हम क्यों गुमराह होते चले जा रहे है??और तो और ,जो लोग हमे गुमराह करतें है,उन्हें ही हम अपने रहनुमा समझने लगते हैं !!कहाँ गए वो ढाई आखर प्रेम के??गुजरात की हालत देख कर क्यों कुछ लोगों को कहना पड़ा कि हमारी आँखें दुनिया के आगे शर्म से झुक गयी हैं??हमे हमारे हुन्दुस्तानी होने पे गर्व के बदले लानत महसूस हो रही है??क्या भारतकी प्राचीन सभ्यता केवल मंदिर -मस्जिद मे सिमटके रहती है??और दिलोंमे रहती है झुलसती हुई आग जो बार बार शोला बनके भड़क उठती है!!
"भाई को भाई काटेंगे,वायस श्रुगाल सुख लूटेंगे -"ये बात कवि दिनकर के "राष्मिरथी"इस महाकाव्यमे श्रीकृष्ण दुर्योधन को कहते हैं । यहाँ पड़ोसी ने पड़ोसियों को काटा और जिन्होंने सुख लूटा उनका यहाँ ज़िक्र कर के अपने कागज़ कलम गंदे नही करना चाहती।

जिनका आपसी विश्वास उठ गया है उसे लौटने मे कितनी सदियाँ लगेंगी ?हमारे देश के इतिहास मे और ऐसे कितने लानछनास्पद वाक़यात घटेंगे ,जिसके पहले कि हमारी आँखें खुलेंगी ??क्या दुर्योधन की तरह हमारी भी मती मारी गयी है??जिन्होंने ये कुकर्म किये उन्हें बहे हुए लहू की गन्ध तंग नही करेगी? उनकी आँखों के आगेसे वो विध्वंसक दृश्य कभी हट पाएँगे?
जिन माताओं के सामने उनके बच्चोंको तड़पता हुआ मरने के लिए छोड़ दिया गया,क्या उन माताओंकी हाय इन हैवानो की आत्मा को कभी शांती मिलने देगी?क्या असहाय जीवों की हत्या करने मे इन लोगों को मर्दानगी का एहसास हुआ होगा??

मैंने कयी तथाकथित बुद्धीजीवों को इन क़ौमी फसादों का ज़िम्मेदार उस महान आत्मा को,जिस का नाम गांधी था,ठहराते हुए सुना है। ऐसे बुद्धीजीवीयों ने अपनी ज़िन्दगीमे अपनी ज़बान हिलाने के अलावा शायद ही कुछ और काम किया होगा। वो क्या समझें उस महात्मा को जिसने अपनी कुर्बानियों के बदले मे ना कोई तख़्त माँगा ना कोई ताज। "अमृत दिया सभी को मगर खुद ज़हर पिया ", कवी प्रदीप ने लिखा है। जिस दिन उस महात्मा की चिता जली होगी सच,महाकाल रोया होगा। ऐसे शांती और अहिंसा के पुजारी पे ऐसा घिनौना इलज़ाम लगाना असंवेदनशीलता की हद है।हैरानी तो इस बात की भी होती है कि, इस गौतम और गांधी के देश मे लोग इस तरह हिंसा पे अमादा हो जाते हैं!!!
इस देश की तमाम माताओं से,भाई बहनों से मेरी हाथ जोडके विनती कि वे अपनी अपनी मान्यतायों के अलावा, बच्चों को जैसे जनम घुट्टी पिलाई जाती है,उस तरह संदेश दे,"प्यार की राह दिखा दुनिया को ,रोके जो नफरत की आँधी!,तुममे ही कोई होगा गौतम,तुममे ही कोई होगा गांधी!"

ये हम सभी की ज़िम्मेदारी है। दुनिया की निगाहें हम पे हैं। देखना है, हम इसे किस तरह निभाते हैं। कोई मोर्चा नही ले जाना है,ना ही कोई भाषण देना है। आँखें मूँद के वो नज़ारा सामने लाने की कोशिश कीजिये जो गुजरात ने देखा होगा,वरना ये आँधी,ये बगूले,हम तक पोहोंचते देर ना लगेगी।
समाप्त

1 टिप्पणियाँ:

अंकुर said...

शमा जी ,लेख पढ़कर खुशी मिली की आपने मेरे मन की बात कितने अच्छे शब्दों मैं बयां की पर न दुःख भी बहुत हुआ ,देश या देशवासियों की दुर्दशा पर नही ,हमारे देश के बुद्धिजीवियों पर ,जुलाई २००७ के लेख मैं आज तक किसी ने भी टिपण्णी नही की ,ऐसा नही की किसी ने पढ़ा न हो ,पढ़ा बहुत से लोगो ने होगा पर बात वही है की हमारे देश के लोगो ने अपने को ऐसे सांचेमैं दाल लिया है की ऐसी किसी भी जोश दिलाने बाली बात पर खून खौलना तो दूर, कोई फर्क भी नही परता और लोग लेख पढ़कर बस निकल लेते हैं,आख़िर क्यो कोई कमेन्ट करे समाज सुधारका जिम्मा उन्होंने तो उठाया नही ,



चलिए शमा जी इनको इनके हाल मैं रहने देते हैं और मैं आपसे कहना चाहुगा की आपके इस लेख को मैं अपने ब्लॉग मैं फिर से लिखना चाहता हूँ अगर आप इजाजत दे, मैं कुछ बदलाव करके इसे लिखना चाहुगा



,भाषा वही है जो मैं चाहता हूँ,बस आपका सहयोग हो जाएगा



दिवाली की हार्दिक शुभकामनाये



अन्कुर

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